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न्यूनतम मजदूरी को जूझता भारत, क्या 'जिंदगी गुजारने के लिए जरूरी वेतन' को लागू कर पाएगा?

भारत 2025 तक अपने न्यूनतम वेतन को 'जीवन गुजारने के लिए जरूरी वेतन' में तब्दील करने का लक्ष्य बना रहा है

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अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organisation’s) की गवर्निंग बॉडी ने 13 मार्च को 'जीवन गुजारने के लिए जरूरी वेतन' (living wages) पर हुए समझौते को सबके सामने रखा. यह समझौता वेतन नीतियों पर विशेषज्ञों की त्रिपक्षीय बैठक के दौरान फरवरी में हुआ था.

'जीवन गुजारने के लिए जरूरी वेतन' की नई परिभाषा में कहा गया है कि यह "वर्कर्स और उनके परिवारों के लिए सभ्य जीवन स्तर मेंटेन करने के लिए आवश्यक वेतन स्तर है, जो देश की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए और सामान्य घंटों के दौरान किए गए काम के लिए गणना की जाती है."

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दिलचस्प बात यह है कि 25 मार्च को भारतीय श्रम मंत्रालय के एक अज्ञात अधिकारी के हवाले से मीडिया ने बताया कि भारत 2025 तक अपने न्यूनतम वेतन को जीवन गुजारने के लिए जरूरी वेतन में तब्दील करने के लिए ILO की तकनीकी मदद लेना चाहता है.

इससे पहले कि हम इस बहस में शामिल हों कि क्या भारत सरकार 2025 तक श्रमिकों के लिए जीवन गुजारने के लिए जरूरी मजदूरी की गारंटी दे सकती है, हमारे लिए भारत में मजदूरी के इतिहास को समझना महत्वपूर्ण है.

भारत में मजदूरी का इतिहास

भारत ने 1948 में न्यूनतम वेतन अधिनियम लागू किया गया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कम वेतन वाली अनौपचारिक नौकरियों में श्रमिकों को न्यूनतम वेतन मिले. हालांकि, अधिनियम में यह साफ नहीं किया गया है कि न्यूनतम वेतन कैसे निर्धारित की जानी चाहिए.

चूंकि श्रम और रोजगार भारतीय संविधान की समवर्ती सूची के अंतर्गत आते हैं, इसलिए संघीय और राज्य सरकारें, दोनों अलग अलग व्यवसायों के लिए न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करती हैं. इसके परिणामस्वरूप पूरे भारत में 1,900 से ज्यादा न्यूनतम मजदूरी दर वाला एक सिस्टम अस्तित्व में आया.

इस बीच, 1957 में 15वें भारतीय श्रम सम्मेलन (ILC) ने न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करने के लिए पहला राष्ट्रीय ढांचा स्थापित किया. इस ढांचे में इस बात पर जोर दिया गया कि न्यूनतम मजदूरी श्रमिकों की जरूरतों पर आधारित होनी चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सकें. इसमें रोजमर्रा के जीवन में व्यक्ति का कैलरी इनटेक, एक परिवार के लिए कपड़ों की आवश्यकताएं और आवास लागत जैसे फैक्टर शामिल थे.
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समय के साथ, न्यूनतम वेतन तय करने के लिए अलग-अलग प्रस्ताव सामने आए. 1969 में, वेतन पर पहले राष्ट्रीय आयोग का मानना था कि 'समान राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन' व्यावहारिक नहीं था. इसके बजाय, उन्होंने हर एक राज्य के भीतर विशिष्ट क्षेत्रों के मुताबिक क्षेत्रीय न्यूनतम वेतन की वकालत की. उन्होंने न्यूनतम वेतन निर्धारित करते समय इस बात पर विचार करने पर भी प्रकाश डाला कि क्या कंपनियां तय वेतन देने में समर्थ हैं या नहीं.

अंततः, 1991 में राष्ट्रीय ग्रामीण श्रम आयोग (NCRL) ने मंहगाई के अनुसार समय-समय पर बदलाव के साथ, ग्रामीण गरीबी रेखा के आधार पर राष्ट्रीय फ्लोर लेवल न्यूनतम वेतन (NFLMW) को लागू करने का प्रस्ताव रखा. NFLMW को 1996 में लागू कर दिया गया पर फिलहाल इसके तहत 176 रुपए दिहाड़ी तय कि गई है. और वह भी एक सलाहकार सिफारिश के तहत क्योंकि यह अभी भी किसी कानूनी बाध्यता के दायरे में नहीं आता.

न्यूनतम वेतन से वंचित

NFLMW का कानूनी तौर पर बाध्य ना होना भारतीय मजदूरों के वेतन सुरक्षा में महत्वपूर्ण खामियां पैदा करती है. NFLMW कागज पर देखने में अच्छा लग सकता है लेकिन जमीनी स्तर पर श्रमिकों की स्थिती सच्चाई की एक अलग तस्वीर पेश करती है. संक्षेप में, भारत में न्यूनतम वेतन नियमों को अक्सर खराब तरीके से लागू किया जाता है जिससे कई सिस्टम द्वारा धोखे के शिकार होते हैं.

2022 और 2023 में आंध्र प्रदेश झींगा उद्योग में लोगों को जबरन काम में धकेले जाने के मामले में मेरी जांच के दौरान मुझे मजदूरी के संबंध में एक परेशान करने वाली वास्तविकता का पता चला. यहां तक कि वो कंपनियों जो अमेरिका को झींगा निर्यात करती थी वह भी अपने श्रमिकों को आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा निर्धारित अनिवार्य न्यूनतम वेतन का भुगतान नहीं कर रही थीं.

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भारत सरकार ने झींगा उद्योग में काम करने वालों की न्यूनतम मजदूरी 504 रुपये से 751 रुपये दिहाड़ी तय की है. हालांकि, जिन स्थानीय और प्रवासी श्रमिकों से मैंने बात की, उन्होंने बताया कि उन्हें हर रोज केवल 300 से 350 रुपये मिलते हैं. इसके अतिरिक्त, इन श्रमिकों के पास औपचारिक नौकरियों का कोई कॉन्ट्रैक्ट नहीं था.

इन मजदूरों की भर्ती बिचौलियों के जरिए से हुई थी. इनका वेतन इस बात पर अधारित था कि इन्होंने कितना यूनिट प्रोड्यूस किया है लेकिन ज्यादातर कामगर अपने पहले से ही कम वेतन, 300 रुपए में कटौती से बचने के लिए दिहाड़ी फॉर्मुला के तहत काम करते थे.

मैंने यह भी पाया कि इन कारखानों में प्रवासी श्रमिकों को स्थानीय तेलुगु श्रमिकों की तुलना में ज्यादा नुकसान का सामना करना पड़ा. पास के गांव के एक स्थानीय कार्यकर्ता को आठ घंटे की शिफ्ट के लिए 300 रुपये मिल रहा हैं, वहीं एक प्रवासी श्रमिक को भी 300 रुपये मिलते हैं लेकिन उसमें से 10 या 20 रुपये बिचौलियों काट लेते हैं. भले ही कंपनियों ने उन्हें रहने के लिए हॉस्टल दिया है लेकिन फिर भी ये श्रमिक दिहाड़ी मजदूर के कैटेगरी में आते हैं जिन्हें कोई फायदा हासिल नहीं होता.

चूंकि इन श्रमिकों के पास यूनियन नहीं था इसलिए अच्छे कामकाजी माहौल और उचित वेतन के लिए इनके पास सामूहिक सौदेबाजी का अधिकार नहीं था.

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दिलचस्प बात यह है कि जिन श्रमिकों से मैंने बात की उनमें से किसी को भी यूनियन बनाने के फायदों के बारे में जानकारी नहीं थी. ये श्रमिक औद्योगिक काम करते हैं और इसलिए वह संगठित सेक्टर के कर्मचारी कहलाने ले काबिल हैं. लेकिन उचित प्रक्रियाओं के बिना उनकी भर्ती और दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करना उन्हें असंगठित सेक्टर में धकेल देती है. यह उन्हें आम तौर पर संगठित श्रमिक से जुड़े सामूहिक सौदेबाजी के अधिकारों से वंचित करता है.

आर्थिक सर्वे 2021-22 के मुताबिक, भारत में 2019-20 के दौरान असंगठित सेक्टर में काम करने वाले लोगों की कुल संख्या लगभग 43.99 करोड़ है. श्रम एवं रोजगार मंत्रालय का कहना है कि देश के कुल कार्यबल का लगभग 93 प्रतिशत हिस्सा असंगठित सेक्टर के श्रमिक हैं.

दूसरे शब्दों में, जमीनी हकीकत यह है कि देश के कुल कार्यबल का 93 प्रतिशत (असंगठित श्रमिक या अनौपचारिक अर्थव्यवस्था वाले) में संघ का प्रतिनिधित्व करने वालों और सामूहिक सौदेबाजी के अधिकार की कमी है. इससे वह न्यूनतम वेतन से भी वंचित हो जाते हैं.

भारत के विशाल प्राइवेट सेक्टर में खासकर असंगठित श्रमिकों की कामकाजी स्थितियों की जांच करने पर जबरन काम करवाने के लक्षण सामने आएंगे. आईएलओ की एक हालिया रिपोर्ट में इस मामले पर प्रकाश डाला गया है. रिपोर्ट में पाया गया कि जबरन मजदूरी के 86 प्रतिशत मामलों में प्राइवेट प्लेयर्स शामिल होते हैं जिससे कंपनी को वैश्विक स्तर पर सालाना 236 अरब डॉलर का अवैध मुनाफा होता है.

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एक अधूरा सपना

76 साल पहले 1948 में न्यूनतम वेतन कानून लागू होने के बावजूद, अधिकांश भारतीय श्रमिकों के लिए न्यूनतम वेतन सुनिश्चित करना एक अधूरा सपना बना हुआ है. संघीय और राज्य सरकारों द्वारा जारी किए कारणों और जटिलताओं के बावजूद, कानून का जमीन पर लागू होना साफ तौर पर विफल रहा है.

न्यूनतम मजदूरी को प्रभावी ढंग से लागू करने में चल रही चुनौतियों को देखते हुए 2025 तक भारत सरकार द्वारा न्यूनतम मजदूरी को 'जीवन गुजारने के लिए जरूरी वेतन' में तब्दील करने की शपथ लेना, उसे भी संदेह के घेरे में रखता है.

'जीवन गुजारने के लिए जरूरी वेतन' श्रमिकों की भलाई सुनिश्चित करने के लिए सामाजिक और आर्थिक कारकों पर विचार करती है. इसलिए स्वाभाविक रूप से यह न्यूनतम मजदूरी से ज्यादा है. यदि हम न्यूनतम मजदूरी को ही सुनिश्चित करने में मौजूदा वक्त में विफल हैं तो कैसे इस महत्वाकांक्षी योजना को सफल बना पाएंगे.

ILO की परिभाषा सशक्त वेतन-निर्धारण संस्थानों और उपकरणों, विशेष रूप से सामाजिक संवाद और सामूहिक सौदेबाजी द्वारा निभाई जाने वाली अहम भूमिकाओं पर जोर देता है.

दुर्भाग्य से, जमीनी हकीकत न्यूनतम वेतन लागू करने के संदर्भ में विफलता भी सामाजिक संवाद और सामूहिक सौदेबाजी की कमी को उजागर करती है.

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'जीवन गुजारने के लिए जरूरी वेतन' के मामले में, ILO ने भी इसको तय करने के कुछ पहलू तय किए हैं. इनमें साक्ष्य-आधारित पद्धतियों, पारदर्शी और सार्वजनिक रूप से उपलब्ध मजबूत डेटा का उपयोग, सामाजिक भागीदारों के साथ परामर्श और जीवनयापन की लागत में परिवर्तन के हिसाब से नियमित बदलाव, क्षेत्रीय और सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं पर विचार करने जैसे पहलू शामिल हैं.

सामाजिक-आर्थिक पहलूओं को नजरअंदाज करते हुए, भारत सरकार ने 44 श्रम कानूनों को चार श्रम संहिताओं/कोड्स में एकसाथ इकट्ठा कर दिया. इन संहिताओं की आलोचनात्मक जांच से श्रमिकों की सुरक्षा के कमजोर होने की संभावना का पता चलता है, खासकर नौकरी की सुरक्षा, वेतन और कामकाजी परिस्थितियों के संबंध में.

आईएलओ यह भी कहता है कि 'जीवन गुजारने के लिए जरूरी वेतन' एक ढांचे में सबको समां देने वाली पहल नहीं होनी चाहिए बल्कि देश में लोकल और क्षेत्रीय माहौल के फर्क को दर्शाने वाला होना चाहिए. इसको बढ़ावा देने के लिए एक स्थायी रणनीति को वेतन-निर्धारण तंत्र के दायरे से परे होनी चाहिए और उसमें कारकों पर व्यापक विचार होना चाहिए.

महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत सरकार के पास वर्तमान में न्यूनतम वेतन के पालन को बढ़ावा देने के लिए स्पष्ट रूप से एक स्थायी रणनीति का अभाव है.

मैं कहूंगा कि 2025 तक न्यूनतम मजदूरी को 'जीवन गुजारने के लिए जरूरी वेतन' में तब्दील करने की भारत सरकार की प्रतिज्ञा एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य है. क्योंकि 'जीवन गुजारने के लिए जरूरी वेतन' श्रमिकों की भलाई के लिए अहम है तो निश्चित रूप से इसकी चाह सबको है हालांकि इस पहल की सफलता वर्तमान चुनौतियों का समाधान करने पर निर्भर करती है.

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भारत में वास्तविकता यह है कि कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा, विशेष रूप से अनौपचारिक सेक्टर में, न्यूनतम वेतन पाने के लिए भी जूझता है. इसको लागू करने वाले तंत्र का कमजोर होना और असंगठित श्रमिकों के लिए सामूहिक सौदेबाजी के अधिकार की कमी कई जरूरी बाधाएं पैदा करती है.

इसलिए, 'जीवन गुजारने के लिए जरूरी वेतन' हासिल करने के लिए बहु-आयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है.

न्यूनतम वेतन को जमीन पर सुनिश्चित करने के लिए उसको लागू करने वाले तंत्र को मजबूत करना, नियोक्ताओं और श्रमिकों के बीच सामाजिक संवाद को बढ़ावा देना कुछ शुरूआती कदम हैं. ऐसा हुआ तभी गुजारा भत्ता का वादा श्रमिकों की आजीविका में ठोस सुधार ला सकता है.

(रेजिमोन कुट्टप्पन एक स्वतंत्र पत्रकार, श्रमिक प्रवासन विशेषज्ञ और अनडॉक्यूमेंटेड [पेंगुइन 2021] के लेखक हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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